पराशर झील हिमाचल प्रदेश के मंडी नगर से चालीस किलोमीटर दूर उत्तर–पूर्व में नौ हजार फुट की ऊंचाई पर स्थित है। दूर से देखने पर इस झील का आकार एक तालाब की तरह लगता है, लेकिन इस झील की वास्तविक परिधि आधा किलोमीटर से कुछ कम है। झील के चारों ओर ऊंची–ऊंची पहाड़ियाँ देखने में ऐसी प्रतीत होती हैं, मानो प्रकृति ने इस झील की सुरक्षा के लिए इन पहाड़ियों की गोलाकार दीवार खड़ी कर दी है। पराशर झील जनबस्तियों से काफ़ी दूर एकांत में हैं। इसके किनारे 'पैगोडा शैली' में निर्मित ऋषि पराशर का तीन मंजिला मंदिर भी है।पराशर झील एक छोटी-सी खूबसूरत झील है, जो पर्यटकों के आकर्षण का केन्द्र है। इस झील की एक ख़ास बात है कि इसमें एक 'टहला' रहता है। 'टहला' एक छोटा-सा द्वीप है, जिसकी विशेषता यह है कि यह झील में ही टहलता रहता है, इसीलिये इसे 'टहला' कहते हैं। पराशर झील के आसपास कोई वृक्ष नहीं है।एक खूबसूरत ख्वाब सी हसीन झील पराशर और उसमें तैरता विशाल भूखण्ड। झील में तैर रही पृथ्वी के इस बेडे को स्थानीय भाषा में टाहला कहते हैं। बच्चों से बुजुर्गों तक के लिये यह अचरज है क्योंकि यह झील में इधर से उधर टहलता है। झील के किनारे आकर्षक पैगोडा शैली में निर्मित मन्दिर जिसे 14वीं शताब्दी में मण्डी रियासत के राजा बाणसेन ने बनवाया था। कला संस्कृति प्रेमी पर्यटक मन्दिर प्रांगण में बार-बार जाते हैं। कहा जाता है कि जिस स्थान पर मन्दिर है वहां ऋषि पराशर ने तपस्या की थी। पिरामिडाकार पैगोडा शैली के गिने-चुने मन्दिरों में से एक काठ निर्मित, 92 बरसों में बने, तिमंजिले मन्दिर की भव्यता अपने आप में मिसाल है। पारम्परिक निर्माण शैली में दीवारें चिनने में पत्थरों के साथ लकडी की कडियों के प्रयोग ने पूरे प्रांगण को अनूठी व नायाब कलात्मकता बख्शी है। मन्दिर के बाहरी तरफ व स्तम्भों पर की गई नक्काशी अदभुत है। इनमें उकेरे देवी-देवता, सांप, पेड-पौधे, फूल, बेल-पत्ते, बर्तन व पशु-पक्षियों के चित्र क्षेत्रीय कारीगरी के नमूने हैं। झील के आसपास घूम रहे स्थानीय श्रद्धालु मन्दिर जाने की तैयारी में हैं। वे झील से हरी-हरी लम्बे फर्ननुमा घास की पत्तियां निकाल रहे हैं। इन्हें बर्रे कहते हैं और छोटे आकार की पत्तियों को जर्रे। इन्हें देवता का शेष (फूल) माना जाता है। अपने पास श्रद्धा के साथ संभालकर रखा जाता है। मंदिर के अन्दर प्रसाद के साथ भी यही पत्ती दी जाती है। मंदिर प्रांगण में श्रद्धा और परम्परा का आलम है।झील में मछलियां भी हैं जो नन्हें पर्यटकों को खूब लुभाती हैं। पराशर झील के निकट हर बरस आषाढ की संक्रांति व भाद्रपद की कृष्णपक्ष की पंचमी को विशाल मेले लगते हैं। भाद्रपद में लगने वाला मेला पराशर ऋषि के जन्मोत्सव के रूप में मनाया जाता है। पराशर स्थल से कई किलोमीटर दूर कमांदपुरी में पराशर ऋषि का भंडार है जहां उनके पांच मोहरे हैं। यहां भी अनेक श्रद्धालु दर्शन के लिये पहुंचते हैं।
पराशर मंदिर
झील के निकट ही पराशर ऋषि का मंदिर है। एक अनुमान के अनुसार इस मंदिर का निर्माण तेरहवीं शताब्दी में तत्कालीन मंडी नरेश बाणसेन द्वारा करवाया गया था। मंदिर में की गयी काष्ठ कला इतनी बेजोड़ है कि कला प्रेमी वाह–वाह किये बिना नहीं रहता। मंदिर में महर्षि पराशर की भव्य पाषाण प्रतिमा के अतिरिक्त भगवान विष्णु,हिषासुरमर्दिनी, शिव व लक्ष्मी की कलात्मक प्रस्तर मूर्तियाँ भी स्थित हैं। झील का सौंदर्यावलोकन करने आये पर्यटक स्वयंमेव ही इस मंदिर में आकर नतमस्तक हो जाते हैं।यह मन्दिर मण्डी रियासत के राजा बाणसेन ने 14वीं शताब्दी में बनवाया था। इस पर सुन्दर नक्काशी बनी हुई है।