कांगड़ा कला ने कांगड़ा कलम के रूप में अपनी सबसे सुंदर कलेत्मक कृत्तियां भेंट की थीं, लेकिन महाराजा संसार चंद की मृत्यु के बाद इसके भरण-पोषण की स्थिति का अंत हो गया। रास्तों के खुल जाने पर बाहरी दुनिया से संपर्क बन गया था। कलाकारों के लिए कला की अनुशीलता के अनुकूल परिस्थितियां न रही थीं। कलाकार एक प्रकार से विस्थापित अनुभव कर रहे थे। रोजी-रोटी की चिंता ने उन्हें ग्रस्त कर लिया था। वे कामकाज के अन्य धंधे ढूंढने लगे थे। कांगड़ा का भूचाल, जो चार अप्रैल 1905 के दिन आया उसने निश्चित रूप से कांगड़ा कला का अंत कर डाला। इस विध्वंस में गिनती की ही कलाकृतियां बच सकीं। असंख्य बहुमूल्य कलाकृतियां नष्ट हो गइर्ं। अनेक कलाकार मृत्यु को प्राप्त हुए। फिर तो जो कतिपय कलाकार बचे भी होंगे उनके लिए भी कला के अनुकूल परिस्थितियां पाना असंभव था। यही दैवी घटना पहाड़ी कला के विलोप के लिए सबसे अधिक उत्तरदायी रही। महाराजा संसार चंद के राज्यकाल के कुछ चित्रकारों के नामों में खुशाला और मानकू प्रमुख थे। कुशन लाल, बसिया, फत्तू और पुरखू नामक अन्य चितेरे उनके दरबार की शोभा रहे। पुरखू एक निपुण कलाकार था, जिसके हाथ की सफाई और कोमलता का बेडन पावेल ने उल्लेख किया है। बसिया एक अन्य सिद्धहस्त चितेरा था। उसी के प्रपौत्र लक्ष्मण दास से जेसी फें्रच की समलोटी में भेंट हुई थी। कांगड़ा दरबार से संबंधित पद्मू और दोखू नामक दो अन्य कुशल चितेरों का भी पता चलता है। समलोटी गांव में गुलाबू राम नामक चितेरा भी था।
साभार :दिव्य हिमाचल
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