हिमाचल प्रदेश उन क्षेत्रों में से है जहां पर्यटन पूरे साल भर अपने यौवन पर रहता है। यहां का हर स्थल पर्यटन के लिहाज से अपने में खास है। लेकिन इनमें से कुछ जगहें ऐसी हैं, जिन्हें हर शख्स बार-बार देखने की तमन्ना रखता है। क्योंकि ये जगहें किसी भी सैलानी के मानसपटल पर प्रकृति के सौंदर्य और रोमांच का जो अफसाना लिख देती हैं, उसे कोई कभी भुला नहीं पाता है। ऐसी ही जगहों में से एक है किन्नौर जिले की सांगला घाटी जो अपने मनमोहक नजारों से किसी का भी दिल जीत लेती है।
शिमला को स्पीति से जोडने वाली नेशनल हाइवे 22 पर जब हम कडछम नामक स्थान पर पहुंचते हैं तो यहां से हम सांगला की ओर मुड जाते हैं, जो यहां से लगभग 18 किमी की दूरी पर पूर्व दिशा की ओर स्थित है। इसी स्थान से किन्नौर जिले का मुख्यालय रिकांगपियो 20 किमी की दूरी पर उत्तर दिशा की ओर स्थित है। सांगला की ओर सफर करते हुए हम ब्रुआ, सापनी, सौंग, चांसु आदि गांवों से रू-ब-रू होते हैं। इनमें हर गांव का अपना खास महत्व है। ये सभी गांव सांगला सडक मार्ग के विपरीत बास्पा नदी के दूसरी तरफ पहाडियों पर बसे हैं। सबसे पहले मिलने वाला वाला ब्रुआ खूबसूरत व ऐतिहासिक गांव है। किन्नौर जिले से एकमात्र यह गांव है, जिसने हिमाचल पर्यटन विभाग के हर गांव की कहानी प्रोजेक्ट में स्थान पाया है। इसी दिशा में सांगला की ओर सौंग गांव है जो काला जीरा के लिए मशहूर है। उसके बाद सापनी और फिर चांसु गांव है। चांसु पत्थर की स्लेट के लिए जाना जाता है। इस गांव से निकलने वाली स्लेटों ने लगभग पूरे किन्नौर के घरों को ढका है। इस ओर सफर करते हुए बास्पा नदी हमारे साथ-साथ चलती है। इसलिए इस घाटी को बास्पा घाटी भी कहा जाता है। लगभग 95 किमी लंबी सांगला (बास्पा) घाटी किन्नौर की सबसे खूबसूरत घाटियों में से एक है।
बांध लेता है सौंदर्य
सांगला बास्पा घाटी का सबसे बडा गांव है। यहां तक पहुंचने के लिए हमें उस खतरनाक सडक मार्ग से सफर करना होता है जो हमेशा दिल में इन ऊंचाइयों का डर बनाए रखता है। जब हम सांगला की सीमा पर दस्तक देते हैं तो इसके सौंदर्य को निहारते हुए आंखें खुली की खुली रह जाती है। कौन सोच सकता था कि इस खतरनाक रास्ते के पीछे भी एक ऐसी खूबसूरत दुनिया बसी हो सकती है जो हमें अपने मोहपाश में बांध देती है। जब हम सांगला पहुंचते हैं तो सबसे पहले हमें सांगला बाजार के दर्शन होते हैं जहां से हमें अपनी जरूरत की हर वस्तु हासिल हो पाती है। लकडी के बने मकान और उनकी शैली हमारे आकर्षण का केंद्र बनती है। लेकिन बदलते समय के साथ लोगों ने अब ईट-बजरी के मकान बनाने शुरू कर दिए हैं, जो सांगला की खूबसूरती को मानो ग्रहण लगाते प्रतीत होते हैं। सांगला व इसके आसपास के गांव सेब, खुमानी, चूली, बादाम, प्लम, अखरोट से लकदक रहते हैं। बैरिंग नाग सांगला के प्रमुख देवता हैं। सितंबर में देवता को समर्पित फुलैच मेले का आयोजन किया जाता है। इस मेले में इस घाटी के अलावा किन्नौर भर से लोग आकर देवता के प्रति अपनी श्रद्धा एवं आस्था का परिचय देते हैं। बैरिंग नाग देवता की खासियत है कि यह देवता लोगों की जमीन-जायदाद से सबंधित फैसले लेते हैं। इनके फैसले सभी को मान्य होते हैं। पूरे किन्नौर में सांगला ही एक ऐसा क्षेत्र है जो इतनी ऊंचाई पर भी थोडा समतल है। गांव में सांगला का वह पहला स्कूल आज भी मौजूद है, जो अंग्रेजों द्वारा शुरू किया गया था। इसके साथ ही ऐतिहासिक व खूबसूरत जंगलात महकमे का विश्राम गृह भी है जिसका निर्माण अंग्रेजों द्वारा 1906 में करवाया गया था। सांगला से लगभग एक किमी दूर गंगारंग में शिव मंदिर है। जहां एक बडी चट्टान है जो दूर से देखने पर शंख की तरह दिखती है। इस स्थान से निकलने वाला पानी पवित्र माना जाता है, जो कई तरह के रोगों, खासकर चर्म रोगों के लिए औषधि का कार्य करता है। सांगला में जीरा फार्म भी है जहां जीरा और केसर उगाया जाता है। सांगला में भोजपत्र के पेड भी पाए जाते हैं। सांगला घाटी ट्रेकिंग के लिए भी काफी मशहूर है।
लकडी का किला
सांगला के साथ उत्तर दिशा की ओर लगता गांव है कामरु जो अपने में कई सदियों का इतिहास समेटे है। इस बात का गवाह यहां का लकडी से बना कामरु िकला है। यहां तक रामपुर बुशहर रियासत का अधिपत्य हुआ करता था। यहां के प्रमुख देवता बद्री विशाल हैं, जो कामरु के लोगों की अटूट आस्था व श्रद्धा के प्रतीक हैं। सांगला के साथ बास्पा नदी को लांघकर दूसरी ओर कश्मीर गांव है। हरे-भरे जंगल से सजा यह गांव बहुत ही सुंदर है। इसी गांव में किन्नौर का एकमात्र ट्राउट मछली पालन केंद्र भी है जो यहां आने वाले लोगों के लिए आकर्षण का बिंदु है।
फलदार पौधों का गढ
सांगला के साथ ही दक्षिण दिशा की ओर लगता गांव है बोनिंग सारिंग। यह गांव भी सेब, खुमानी, चूली, चिलगोजा, अखरोट, पलम आदि के पेडों से भरपूर है। हम यहां से बसपा नदी के उस पार दूसरे बडे और सुंदर, स्वच्छ गांव बटसेरी पहुंचते हैं। इस गांव के लिए हम लकडी का बना वह पुल पार करते हैं जो कुशल कारीगरों की तकनीक का बेजोड नमूना पेश करता है। बटसेरी गांव हल्की सी ढलान पर बसा बहुत ही सुंदर गांव है। यह गांव भी फलदार पौधों से भरपूर है। इस गांव के देवता बद्री नारायण हैं। इन देवता का मंदिर काष्ठ कला का बेजोड नमूना है। मंदिर की छत पर जहां सूरज और चांद विराजमान नजर आते हैं, वहीं इसकी दीवारों पर लकडी पर उकेरी गई हर धर्म के देवी-देवता और उनके गुरुओं की आकृतियां इस मंदिर को निखारती हैं। यदि सडक मार्ग से बटसेरी पहुंचना हो तो यह सांगला से 7 किमी की दूरी पर बसा है।
बादल फटने का असर
सांगला से ही लगभग 14 किमी की दूरी पर बसा है गांव रकछम। इस गांव तक पहुंचने से पहले हम प्रकृति के उन हसीन नजारों से रू-ब-रू होते हैं जिनका दीदार करने के लिए नजरें लालायित रहती हैं। यहां का नैसर्गिक सौंदर्य बरबस ही हमें अपनी ओर खींच लेता है। सडक मार्ग के साथ-साथ और ऊपर पहाडी की ओर हमें ढेर सारे छोटे-बडे पत्थरों की बाड और उनके बीच में उगे हरे-भरे पेड कुछ इस तरह का सुंदर दृश्य प्रस्तुत करते हैं जो हमारी नजरें हटने नहीं देता। खरोगला से मस्तरंग तक ढेर सारे पत्थरों का सैलाब उस वक्त उमडा था जब यहां बादल फटा था और साथ सारी मिट्टी बहाकर ले गया था और बदले में छोड गया था यह पत्थरों का अपार ढेर। लेकिन ये सब आज प्रकृति के नैसर्गिंक सौंदर्य में नया निखार लाते हुए प्रतीत होते हैं। सफर के दौरान हमें बास्पा नदी के किनारे तंबू के कमरेनुमा कैंप भी सजे नजर आते हैं जहां पर्यटक, ट्रेकर ठहरते हैं और ट्रेकिंग का भरपूर आनंद उठाते हैं। इन सब नजारों से घुलते-मिलते हुए हम रकछम पहुंचते हैं। रकछम समुद्र तल से 2900 मी की ऊंचाई पर बास्पा नदी के दार्इं ओर बसा एक छोटा सा सुंदर गांव है। रकछम गांव का नाम दो शब्दों रक और छम से मिलकर बना है। रक का अर्थ पत्थर और छम का अर्थ पुल होता है। इस गांव का अर्थ यहां की भौगोलिक स्थिति को पुरी तरह से ब्यान करने में सक्षम है। मस्तरंग गांव में आइटीबीपी की पहली चौकी स्थित है। सेब का इलाका मस्तरंग तक ही है। उसके बाद सेब नहीं है।
गर्मी में सर्दी का एहसास
हम जितने खतरनाक रास्तों को लांघते जाते हैं हमें उतने ही सुंदर स्थानों के दर्शन होते जाते हैं। ऐसे ही खूबसूरत इलाकों का दीदार करते हुए हम इस घाटी के किन्नौर के सबसे अंतिम और घाटी के सबसे ऊंचे गांव छितकुल पहुंचते हैं। यह गांव सांगला से 26 किमी की दूरी पर स्थित है। इसकी समुद्रतल से ऊंचाई 3450 मीटर है। इस गांव में हाजिर होते ही ऐसा लगता है जैसे हम किसी कल्पना लोक में पहुंच गए हों। ऊपर की ओर हल्की ढलान में बसा यह गांव एक ऐतिहासिक गांव है, जहां लकडी से बने छोटे-छोटे एक-दूसरे से सटे मकान ऐसे प्रतीत होते हैं जैसे ये ठंड के कारण एक-दूसरे से चिपके हों। वैसे भी यह इलाका बहुत ही ठंडा है जो गर्मी के दिनों में भी जबर्दस्त ठंड का अहसास करा देता है। वर्ष में लगभग 6 महीने यह इलाका बर्फ की चपेट में ही रहता है। जिसके कारण यहां सेब की फसल नहीं होती। यहां के लोगों का रहन-सहन सीधा-सादा व सरल है। इस छोटे से गांव की गलियों में घूमते हुए ऐसा लगता होता है जैसे हम आधुनिकता की चकाचौंध न जाने कितने साल पीछे छोड आए हों। इस गांव में घरों में सालों पुराने बडे-बडे ताले लगे देखकर कोई भी अचंभित हुए बिना नहीं रह सकता। इस गांव से आगे कोई बस्ती नहीं है। गांव की पूच्य देवी को स्थानीय लोग देवी मथी (माता देवी) के नाम से पुकारते हैं। देवी का मुख्य पूजास्थल 500 बर्ष पुराना माना जाता है। साथ ही, यहां एक किला व बुध मंदिर भी है जो लोगों की आस्था का प्रतीक है।
आगे कोई बस्ती नहीं
हालांकि इस गांव के आगे कोई और बस्ती नहीं है, लेकिन गांव के बुजुर्गो का कहना है कि उनके बुजुर्ग कई पीढियों पहले यहां से आगे के गांवों (गढवाल की तरफ) नीलींग, माना आदि से आए थे और छितकुल में बस गए थे। छितकुल से तीन किमी आगे रानीकंडा में आइटीबीपी की चौकी है। इस चौकी से आगे किसी भी नागरिक का जाना वर्जित है क्योंकि छितकुल से लगभग 65 किमी आगे चीन (तिब्बत) की सीमा आरंभ हो जाती है। हालांकि इसके आगे आईटीबीपी की दो और चौकियां भी हैं। छितकुल उत्तराखंड की सीमा से कुछ ही किमी की दूरी पर है।
लेख एवं छाया : पवन चौहान
source:jagaran.com